यूँ जाम शायरी के छलकते ही जाये है
अशआर कितने हमने सभी को पिलाये है
हर रिंद उठाता है जब ये हाथ जाम का
पैमाना उनका नग्मों से हम भर के लाये है
रहता है सर-ए-बज़्म मुझे इक खुमार सा
कोई भी मुहब्बत का जब भी गीत गाये है
है फूलों के जैसे लफ्ज़ ही हम ने पिरोये थे
वल्लाह अब ग़ज़ल भी महकती ही जाये है
महफ़िल में वो मिली तो ग़ज़ल ख़ूबतर हुई
उस पर लिखी ग़ज़ल को ही हम गुनगुनाये है
अशआर कितने हमने सभी को पिलाये है
हर रिंद उठाता है जब ये हाथ जाम का
पैमाना उनका नग्मों से हम भर के लाये है
रहता है सर-ए-बज़्म मुझे इक खुमार सा
कोई भी मुहब्बत का जब भी गीत गाये है
है फूलों के जैसे लफ्ज़ ही हम ने पिरोये थे
वल्लाह अब ग़ज़ल भी महकती ही जाये है
महफ़िल में वो मिली तो ग़ज़ल ख़ूबतर हुई
उस पर लिखी ग़ज़ल को ही हम गुनगुनाये है
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