Wednesday 13 April 2016

बचपना




बचपना जब भी घर बनता है 
एक दीवार भूल जाता है 

मुन्तजिर आँख जैसे जानती है 
कौन अब दरवाज़ा खट खटाता है 

ज़िन्दगी हो चुकी है रक्कासा 
बस अमीरों से इसका नाता है 

हाल दिल का है उस मुसाफिर सा 
जो सराए  में लुट के आता है

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