शेर-ओ-ग़ज़ल
Wednesday, 13 April 2016
बचपना
बचपना जब भी घर बनता है
एक दीवार भूल जाता है
मुन्तजिर आँख जैसे जानती है
कौन अब दरवाज़ा खट खटा
ता है
ज़िन्दगी हो चुकी है रक्कासा
बस अमीरों से इसका नाता है
हाल दिल का है उस मुसाफिर सा
जो सराए में लुट के आता है
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