Friday, 1 April 2016

आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं


आरज़ू थी एक दिन तुझसे मिलूं
मिल गया तो सोचता हूँ क्या कहूँ

घर में गहराती ख़ला है क्या कहूँ
हर तरफ़ दीवार-ओ-दर है क्या करूँ

जिस्म तू भी और मैं भी जिस्म हूँ
किस तरह फिर तेरा पैरहन बनूँ

रास्ता कोई कहीं मिलता नहीं
जिस्म में जन्मों से अपने क़ैद हूँ

थी घुटन पहले भी पर ऐसी न थी
जी में आता है कि खिड़की खोल दूँ

ख़ुदकुशी के सैकड़ों अंदाज़ हैं
आरज़ू का ही न दमन थाम लूँ

साअतें सनअतगरी करने लगीं
हर तरफ़ है याद का गहरा फ़ुसूँ


शब्दार्थ:
साअतें-क्षणों
सनअतगरी-मीनाकारी
फ़ुसूँ-जादू

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