Friday, 1 April 2016

ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी


ख़याल-ओ-ख़्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी

न शब को चांद हैं अच्छा न दिन को मेहर अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़यामतें कैसी

अज़ाब जीन का तबस्सुम सवाब जिनकी निगाह
खिंची हुई हैं पस-ए-जानां सूरतें कैसी

हवा के दोश पे रक्खे हुए चिराग़ हैं हम
जो बुझ गये तो हवा से शिकायतें कैसी

जो बेख़बर कोई गुज़रा तो ये सदा दी है
मैं संग-ए-राह हू मुझ पर इनायतें कैसी

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