Friday, 1 April 2016

उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं


उम्र जलवों में बसर हो ज़रूरी तो नहीं
हर शब-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं

चश्म-ए-साक़ी से पियो या लब-ए-साग़र से पियो
बेख़ुदी आठों पहर हो ये ज़रूरी तो नहीं

नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है
उनकी अगोश मे सर हो ये ज़रूरी तो नहीं

शेख़ करता तो है मस्जिद में ख़ुदा को सजदे
उसके सजदों में असर हो ये ज़रूरी तो नहीं

सब की नज़रों में हो साक़ी ये ज़रूरी है मगर
सब पे साक़ी की नज़र हो ये ज़रूरी तो नहीं

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