मैं हूँ एक पत्नी और अपने दो बच्चों की मम्मी
मिडिल क्लास घर मे औरत नाम की एक डमी
जैसे चाहे इस्तेमाल करो पर है कोई नही ग़म
अफ़्सोस ये कि मेरा वजूद घर मे सबसे कम
वो कहते हैं अब पहले वाली मुझमे बात नही
मैं कहती हूं क्या जीवन सिर्फ़ दिन है रात नही
वो कहते हैं मासूम हाथो की नमी कहाँ गयी
मै कहती हूं घर की नींव बनाने मे समा गयी
उन्हे मै अब मोटी भद्दी और थूथली लगती हूँ
बिखरे बालों वाली अनपढ और पगली लगती हूं
आटे से सने हाथ और कभी हल्दी है चहरे पर
सुबह से रात तक काम होने की जल्दी चहरे पर
थकी हारी तो भी मै अपना हर कर्म निभाती हूं
मै इनके संग अपना पत्नी धर्म भी निभाती हूँ
पर मेरे लिये कभी प्यार के दो मीठे बोल नही
क्या पत्नि का अपने घर मे भी कोई मोल नही
कहते हैं दस साल गुजर गये हैं अब शादी को
मनाते हैं उसकी वर्षगाँठ बस अपनी बर्बादी को
ग़र मै इतनी बुरी हूँ तो फ़िर छोड दो ये रिश्ता
इन्सान हूँ मैं भी नही कोई हूर परी या फ़रिश्ता
वो रास्ते चलती लड्कियों को देख 'पीस' कह्ते
पहले मुझे लगा वो मन कि शांति की टीस सहते
फ़िर समझ आयी हरकतें अपने ही इन लंगूर की
खट्टे हैं पर आदत नही गयी देखने की अंगूर की
फ़िक्र नही इन्हे घर की बडे हो रहें हैं बच्चे भी
एक दिन घर ना सम्भालूँ तो खो जाये कच्छे भी
मैक्सी मे सुबह से दोपहर तक मै एक कामवाली
फ़िर मिलती है दो सूखी रोटी और चाय की प्याली
खाना कपडें बर्तन और फ़िर बस घर की सफ़ाई
शाम तक चक्की सी पिस्ती फ़िर बच्चो की पढाई
मै सिर्फ़ ज़िन्दगी अपने घर के लिये ही जीती हूँ
और फ़िर भी हर रोज अपमान का घूँठ पीती हूँ
बाहर के 'पीस-अंगूर' कितने ही अच्छे डाली पे
घर तो फ़िर भी चलता है सिर्फ़ एक घरवाली से
बस कहना चाहती हूँ दिल की एक ही ख़वाहिश
कुछ देना नही प्यार के दो बोल की है गुजारिश
शायद एक दिन आपके भाव भी हो जायें बदली
इसी उम्मीद मे मै आपकी पत्नी एक अनपढ पगली
मिडिल क्लास घर मे औरत नाम की एक डमी
जैसे चाहे इस्तेमाल करो पर है कोई नही ग़म
अफ़्सोस ये कि मेरा वजूद घर मे सबसे कम
वो कहते हैं अब पहले वाली मुझमे बात नही
मैं कहती हूं क्या जीवन सिर्फ़ दिन है रात नही
वो कहते हैं मासूम हाथो की नमी कहाँ गयी
मै कहती हूं घर की नींव बनाने मे समा गयी
उन्हे मै अब मोटी भद्दी और थूथली लगती हूँ
बिखरे बालों वाली अनपढ और पगली लगती हूं
आटे से सने हाथ और कभी हल्दी है चहरे पर
सुबह से रात तक काम होने की जल्दी चहरे पर
थकी हारी तो भी मै अपना हर कर्म निभाती हूं
मै इनके संग अपना पत्नी धर्म भी निभाती हूँ
पर मेरे लिये कभी प्यार के दो मीठे बोल नही
क्या पत्नि का अपने घर मे भी कोई मोल नही
कहते हैं दस साल गुजर गये हैं अब शादी को
मनाते हैं उसकी वर्षगाँठ बस अपनी बर्बादी को
ग़र मै इतनी बुरी हूँ तो फ़िर छोड दो ये रिश्ता
इन्सान हूँ मैं भी नही कोई हूर परी या फ़रिश्ता
वो रास्ते चलती लड्कियों को देख 'पीस' कह्ते
पहले मुझे लगा वो मन कि शांति की टीस सहते
फ़िर समझ आयी हरकतें अपने ही इन लंगूर की
खट्टे हैं पर आदत नही गयी देखने की अंगूर की
फ़िक्र नही इन्हे घर की बडे हो रहें हैं बच्चे भी
एक दिन घर ना सम्भालूँ तो खो जाये कच्छे भी
मैक्सी मे सुबह से दोपहर तक मै एक कामवाली
फ़िर मिलती है दो सूखी रोटी और चाय की प्याली
खाना कपडें बर्तन और फ़िर बस घर की सफ़ाई
शाम तक चक्की सी पिस्ती फ़िर बच्चो की पढाई
मै सिर्फ़ ज़िन्दगी अपने घर के लिये ही जीती हूँ
और फ़िर भी हर रोज अपमान का घूँठ पीती हूँ
बाहर के 'पीस-अंगूर' कितने ही अच्छे डाली पे
घर तो फ़िर भी चलता है सिर्फ़ एक घरवाली से
बस कहना चाहती हूँ दिल की एक ही ख़वाहिश
कुछ देना नही प्यार के दो बोल की है गुजारिश
शायद एक दिन आपके भाव भी हो जायें बदली
इसी उम्मीद मे मै आपकी पत्नी एक अनपढ पगली
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