Sunday 27 March 2016

फिर किस लिए ये क़ानून हैं

फिर किस लिए ये क़ानून हैं
शायद मेरे लिए ही क़ानून हैं

बने हैं सरे राह मंदिर मस्जिद
जहां चलने के भी क़ानून हैं

खुदा के बन्दों ने छीनी वाणी
बोलने न बोलने के क़ानून हैं

मंज़िल की आस फ़ज़ूल है यहाँ
हर कदम क़ानून ही क़ानून हैं

कैद में है, दोषी स्वतंत्र हैं
कैसा ये देश है कैसे क़ानून हैं

No comments:

Post a Comment