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चाँद के कोर से....जब
आँशु टपकता सतरंगी सा।
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हृदय मरुस्थल पर मचलता
हरित रूप लिए धरती का।
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लहराते वन मे हुलसाये मन
चंचल-चितवन भटके मृग सा।
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हँसकर-थककर तृष्णा करता
नभ मे उजला-धुंधला ग्रहण सा।
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वक़्त के चरखे मे उलझा जीव
हरपल बदले रंग इंद्रधनुष सा।
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