Monday, 14 March 2016

कैसे कह दूँ ......

कैसे कह दूँ हाथ में मेरे कोई शीशा नहीं
जो नज़र आता है इसमें चेहरा वो मेरा नहीं

कल खुली छोड़ीं थी मैंने अपने घर की खिड़कियाँ
एक भी झोंका हवा का इस तरफ़ गुज़रा नहीं

आई थीं इस शहर में गर आँधियाँ तब्दील की
ज़र्द पत्ता शाख से क्यों एक भी टूटा नहीं
जाने किस दीवानगी में लिख गया आख़िर में ये
देखता हूँ तेरी मूरत जब नशा होता नहीं
लोग तट पर आके बोले ये है माँझी का कमाल
देखिये उसको मगर एहसास तक इसका नहीं

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