Thursday, 17 March 2016

एक नज़्म हौसले के नाम...


जलाया है मुझको शोलों की तपिश ने
वो काँटों की चुभन वो रकीबों की रंजिश ने
वो पीसा है मुझको वक़्त के पत्थर ने
वो तकदीरों और तदबीरों की बंदिश ने
बशर हूँ मैँ कोई खुदा तो नहीं हूँ
ज़ुबाँ रखता हूँ बेज़ुबाँ तो नहीं हूँ
हिम्मत है मेरी फ़क़त मेरा साया
शोलों ने मुझको है जब जब जलाया
मैंने रक्खा है हर दम ख़ुद्दारी का साथ
करी है अकेले में अपने ख़ुदा से ये बात
बोला है मुर्शिद ने मुझको ये कानों में
नहीं मिलती मंज़िल बाग़-ए-आसानों में
ग़र चाहता है तू अहद-ए-अमल होना
छोड़ दे तू किस्मत का तू अब ये रोना
चलता चल तू अपना पैग़ाम ले के
मुज़लिमों का तिफ्लों का पासबां बन जा
तोड़ दे ये बुरे वक़्त की तू तक़दीर
हौसले की शमशीर लेकर 'ख़ुद्दार' बन जा



तपिश - Heat
तदबीर - Planning
बशर - Human
फ़क़त - Only
Murshid - Guide
अहद-ए-अमल - Man of action
मुज़लिम - Downtrodden
तिफ़्ल - Child (here used as metaphor for weak)
पासबां - Guardian or protector
Shamsheer - Sword

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