सफ़र है दर्द का जिसपे कि रस्ता चीख़ उठता है,
उजाला गर ना चीख़े तो अन्धेरा चीख़ उठता है.
जवाँ बेटों की जब भी लाश के ताबूत आते हैं,
मुहल्ले भर की माँओं का कलेजा चीख़ उठता है.
सुहागिन मांग अपनी पोंछ कर बिंदी हटातीं तब,
कभी काजल कभी चूड़ी का डिब्बा चीख़ उठता है.
न जाने कौनसा है खौफ़ मेरी नींद में ज़िंदा,
जिसे छू कर मेरे ख़्वाबों का बच्चा चीख़ उठता है.
पहाड़ों की तरह मुर्दे मेरे आँगन में लेटे हैं,
जनाज़े जब उठाता हूँ तो कन्धा चीख़ उठता है.
मेरे घर में ये कैसा आईना ले कर चले आए,
इसे जो देखता है वो ही चेहरा चीख़ उठता है.
छिपी है कौनसी ये टीस इन काग़ज़ के जख्मों में,
मैं जब तहरीर लिखता हूँ तो पन्ना चीख़ उठता है.

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