जहाँ
लोग लगे हैं
पूरियाँ त़लने
में
क्या हर्ज़ है
अपनी रोटी सेंकने
में
मची है मुहल्ले
में जम के
मारकाट
हद है, और
भीड़ लगी है
देखने में
बातें
ग़ज़ब हैं आगे
चलने की पर
ज़ोर है सारा असली
चेहरा छुपने
में
भारत
भाग्य क्या
जाने विधाता
जब
जनता को पड़ गई आदत सहने में
तू भी कर
ही ले अपनी
चिंता
क्या
रखा है इन पचड़ों
में पड़ने में
No comments:
Post a Comment