दीनो-ईमान बिक रहा कौड़ियों
में
नंगे
खेल रहे हैं रूपए
करोड़ों में
फ़ोड़ डाली हैं सबने
आँखें अपनी
सियासत
बची है अगड़ों
पिछड़ों
में
किस किस
के चेहरे पहचानोगे
अब सब तो
बिकता है
दुकानों में
कोई और
दौर था या
कहानी थी
सत्यता गिनी जा
रही सामानों
में
लकीर पीटने से
तो बेहतर है
जा तू भी
शामिल हो जा
दीवानों में
No comments:
Post a Comment