Friday, 18 March 2016

झूठ को झूठ बताते हुए डर लगता है

झूठ को झूठ बताते हुए डर लगता है
आइना सच का दिखाते हुए डर लगता है!!
मेरे आदाब को समझे न कोई शान अपनी
इसलिए सर को झुकाते हुए डर लगता है!!
जिस्म को रूह कहीं छोड़ न जाए तनहा
तेरी यादों को भुलाते हुए डर लगता है!!
आँसुओं पे लिखी तहरीर न पढ़ ले कोई
अश्क़ आँखों में छुपाते हुए डर लगता है!!
क्या पता वो कोई कानून का रखवाला हो
चोर को चोर बताते हुए डर लगता है!!
लग न जाए मेरे आने की भनक दुनिया को
तुमको आवाज़ लगाते हुए डर लगता है!!
दर्द की लहर कहीं दौड़ न जाए दिल में
आप से आँख मिलाते हुए डर लगता है!!
घर की दहलीज़ पे फिर पाँव पड़ें या न पड़ें
अब सफ़र में हमें जाते हुए डर लगता है!!
मेरे जज़्बात से खिलवाड़ न कर बैठे कोई
दिल में अहसास जगाते हुए डर लगता है!!
क्या पता कल कोई अपना ही मुख़ालिफ़ निकले
ऊँगली गैरों पे उठाते हुए डर लगता है!!

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